Kabir Ke Dohe In Hindi लेख में आपको कुछ ऐसे कबीर के दोहे पढने को मिलेंगे जिनका बखान हम अर्थ सहित करने वाले हैं. संत कबीर दास जी के इन दोहों का मतलब यानी Meaning क्या है वो भी हम आपको अच्छे से समझायेंगे. कबीर जी एक महान हस्ती थे और उन्होंने अपने जीवनकाल में कई तरह की रचनाएँ की.
यदि हिंदी भाषा के विकास का जिक्र किया जाए तो कबीर उस समय के प्रमुख कवि और एक समाज सुधारक थे. इन्होने जितनी भी रचनाएँ की, जैसे दोहे और पद वगैरह, उनमें हरयाणवी, पंजाबी और राजस्थानी बोली की अधिकता प्रतीत होती थी. संत कबीर दास जी के जन्म स्थान को लेकर कई तरह की धारणाएं हैं.
कोई कहता है की उनका जन्म मगहर में हुआ था, तो कोई आजमगढ़ का बताता है. लेकिन ज्यादातर लोग इस बात को लेकर एकमत हैं की उनका जन्म काशी में हुआ था. ये बात कबीर दास के दोहे की ही एक लाइन “काशी में परघट भये, रामानंद चेताये” से भी साबित हो जाती है.
कबीर का जन्म एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था लेकिन कुछ घटनाओं के चलते उनका पालन पोषण एक मुस्लिम परिवार में हुआ था. कबीर को पढने लिखने में कोई रुचि नहीं थी. शायद आप लोग जानते नहीं होंगे की जितने भी Kabir Ke Dohe आज हम पढ़ते हैं उन्हें उनके शिष्यों द्वारा अक्षरों में उतारा गया था.
क्योंकि कबीर को लिखना आता ही नहीं था. उन्होंने अपने दोहे बनाये और उन्हें अपने मुहं से अपने शिष्यों को सुनाया. उनके शिष्य उनके द्वारा बोले गए दोहों और पदों को रचना के तौर पर उतारते थे, यानी लिखते थे.
कबीर धर्म के नाम पर की जा रही मनमानी और कुप्रथाओं से काफी व्यथित थे और उनका विरोध करते थे. उनसे पूछने पर वो कहते थे की ना तो वो हिन्दू हैं और ना ही मुसलमान. सबसे पहले वो एक इंसान हैं जो मानवता में विश्वास रखता है. कबीर ने अपना पूरा बचपन काफी गरीबी में बिताया था.
मरने से पहले कबीर ने अपने जीवनकाल में 61 रचनाएँ की. उनकी मृत्यु 1518 में हुयी, ऐसा बताया जाता है. हालांकि किस जगह पर हुयी थी, इस बात को लेकर अब भी संशय हैं. एक ऐसा महान व्यक्ति जिसने अनपढ़ रहते हुए भी महान रचनाएं कर डाली, ऐसे थे संत कबीर.
हमें बचपन से ही कबीर की रचनाएँ पढाई जाती हैं. उनके हर दोहे में एक गहन बात छुपी हुयी है. उनके हर दोहे का अर्थ आपको कुछ ना कुछ सिखाता है या प्रेरणा देता है. तो चलिए पेश है आपको लिए संत कबीर दास के 50 प्रसिद्द दोहे उनके सार यानी मतलब के साथ.
Kabir Ke Dohe In Hindi With Meaning – संत कबीर के दोहे
(1) साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय
सार सार को गहि रहै, थोथा देई उडाए
अर्थ – इसमें संत कबीर जी कहना चाहते हैं की इस दुनिया को ऐसे सज्जन पुरुषों की आवश्यकता है जैसे अनाज को साफ़ करने वाले सूप होते हैं. जो अच्छी चीज़ों को बचा लें और बेकार यानी निरर्थक चीज़ों को उड़ा दें.
(2) धीरे धीरे रे मना, धीरे ही सब कुछ होय
माली सींचे सो घड़ा, ऋतु आये फल होए
अर्थ – इसमें कवी जी बताना चाहते हैं की मन में हमेशा सब्र रखना चाहिए, सब कुछ धीरे धीरे ही होता है. यदि कोई माली एक ही दिन में किसी पौधे को सौ मटके पानी से भी सींच दे तो भी फल तो ऋतु आने पर ही लगेंगे. इसलिए सफलता का स्वाद चखने के लिए धीरज रखना जरूरी होता है.
(3) मन के हारे हार है, मन के जीते जीत
कहे कबीर गुरु पाइए, मन ही के प्रतीत
मतलब – अगर आप मन से पहले ही हार मान चुके हैं तो आप जरूर हारेंगे. और अगर आपको अपनी जीत का विश्वास है तो आप जरूर जीतेंगे. कबीर जी कहते हैं की सफलता और विफलता दोनों आपको मनोविश्वास पर ही निर्भर करती हैं.
(4) जाती ना पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान
मोल करो तरवार का, पड़ा रहन द्यो म्यान
अर्थ – कवि कहना चाहते हैं की किसी भले मानुष की जाती की तरफ ना देखकर उसके अन्दर निहित ज्ञान को देखना चाहिए. कीमत तलवार की होती है, जिस म्यान में वो रखी जाती है उसकी नहीं.
(5) लाली मेरे लाल की, जित देखूं तित लाल
लाली देखन मै गयी, मै भी हो गयी लाल
अर्थ – कबीर जी कहते हैं की ये सारी भक्ति, ये सारा जीवन, ये सारा संसार मेरे लाल यानी भगवान् का है. जब मै इनमें से किसी भी चीज़ को देखता हूँ तो हर तरफ मुझे इश्वर ही नज़र आते हैं.
(6) गुरु गोविन्द दोउ खड़े. काको लागू पाय
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय
सार – यहाँ कबीर ही कहना चाहते हैं की यदि गुरु और ईश्वर दोनों एक साथ सामने आ जाएँ तो हमें पहले गुरु के चरण स्पर्श करने चाहिए. क्योंकि गुरु ही वो हस्ती हैं जो हमें ईश्वर से मिलने का रास्ता दिखाते है.
(7) जब मै था तब हरि नहीं, अब हरि हैं तो मै नाहीं
प्रेम गली अति सांकरी, जामें दो ना समाई
Kabir Ke Dohe With Hindi Meaning – इसका अर्थ है की जब तक उनके मन में “मै” यानी अहंकार रहा, तब तक कभी ईश्वर से साक्षात्कार नहीं हुआ. जैसे ही मैंने अहंकार को छोड़ा तो ईश्वर से साक्षात्कार हो गया. भगवान् से मिलना है तो अहंकार को त्यागना होगा. क्योंकि भगवान् और अहंकार दोनों एक साथ कभी नहीं रह सकते.
(8) दुःख में सुमिरन सब करे, सुख में करे ना कोई
जो सुख में सुमिरन करे, तो दुःख काहे को होय
अर्थ – कबीर जी कहते हैं की सब मनुष्य सिर्फ दुःख में ही भगवान् को याद करते हैं. लेकिन अगर वो अपने सुख के समय में भी भगवान् को याद करते रहें तो दुःख की घडी आएगी ही नहीं.
(9) बोली एक अनमोल है, जो कोई बोलै जानी
हिये तराजू तोली के, तब मुख बाहर आनि
अर्थ – जो मनुष्य अच्छे ढंग से बोलता है, उसे पता रहता है की वाणी यानी जुबान एक अमूल्य रत्न है. इसलिए वह जो भी बोलता है उसे पहले हृदय रुपी तराजू में तोलता है और उसके बाद ही शब्दों को बाहर आने देता है.
(10) दुर्लभ मानुष जन्म है, देह न बारम्बार
तरुवर ज्यों पत्ता झड़े, बहुरि ना लागे डार
मतलब – कवि कहना चाहते हैं की इंसान के रूप में जन्म मिलना बहुत ही दुर्लभ चीज़ है और ये मनुष्य देह बार बार नहीं मिलती. जिस प्रकार पेड़ की डाल से पत्ता झड़ने के बाद वापिस नहीं जुड़ता उसी प्रकार मानव देह भी बार बार नहीं मिलती.
(11) कबीर लहरि समंद की, मोती बिखरे आई
बगुला भेद ना जानई, हंसा चुनी चुनी खायी
अर्थ – बगुला नहीं जानता की समुन्दर की लहरों के साथ साथ मोती क्यों आकर बिखरे हैं. किन्तु हंस को उनका महत्व पता है और उन्हें चुन चुनकर खा रहा है. इसका मतलब ये है की किसी भी चीज़ का महत्व उसका जानकार ही समझ सकता है.
(12) अति का भला न बोलना, अति की भली न चुप
अति का भला न बरसना. अति की भली न धूप
अर्थ – संत कबीर के अनुसार ना ही बहुत ज्यादा बोलना अच्छा होता है और ना ही हर वक़्त चुप रहना. ठीक उसी तरह से जैसे ना तो अधिक बारिश अच्छी होती है और ना ही ज्यादा पड़ती हुयी धूप.
(13) कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर
ना काहू से दोस्ती, ना कहू से बैर
अर्थ – इसका मतलब है की इस दुनिया में आये हो तो सबके भले की प्रार्थना करो. ना ही किसी से दोस्ती रखनी चाहिए और ना किसी से दुश्मनी का भाव रखना चाहिए.
(14) जब गुण को ग्राहक मिले, तब गुण लाख बिकाई
जब गुण को ग्राहक नहीं, तब कौड़ी बदले जाई
अर्थ – इस कबीर के दोहे का मतलब यह है की अपने किसी गुण की कीमत तभी होती है जब उस गुण को खरीदने वाला कोई ग्राहक हो. अगर ऐसा कोई ग्राहक ना मिले तो उस गुण की कोई कीमत नहीं रह जाती.
(15) जो उग्या सो अंतबै, फुल्याँ सो कुम्लाहीं
जो चिनिया सो डहि पड़े, जो आया सो जाहीं
अर्थ – इस संसार के अपने कुछ नियम हैं की जिसका उदय होता है उसका अस्त भी तय है. जो भी खिला है वो एक दिन मुरझायेगा. जो चिना गया है वो एक ना एक दिन ढह जाएगा और जो आया है वो चला जाएगा.
(16) जग में बैरी कोय नहीं, जो मन शीतल होय
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोई
अर्थ – अगर आप ठन्डे यानी शांत किस्म के इंसान हैं तो इस संसार में आपका कोई दुश्मन नहीं होगा. अगर आप अपना घमंड त्याग दें तो हर कोई आपकी मदद करने के लिए आगे आ जाता है.
(17) बुरा जो देखन मै चला, बुरा न मिलया कोय
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा ना कोय
अर्थ – कबीर दास जी कहते हैं की जब मैंने इस दुनिया में बुरा व्यक्ति खोजने की कोशिश की तो मुझे कोई नहीं मिला. लेकिन अपने खुद के अन्दर झाँक के देखा तो पता चला की मुझसे बुरा कोई नहीं है.
(18) जिन खोजां तिन पाइयाँ, गहरे पानी पैठ
मै बपुरा बुडन डरा, रहा किनारे बैठ
अर्थ – कवी के अनुसार मेहनत और कोशिश करने वाला व्यक्ति कुछ ना कुछ जरूर पाता है. जो गहरे पानी में उतरता है वो कुछ ना कुछ जरूर पाकर आता है. वहीँ बहुत सारे ऐसे लोग भी होते हैं जो डूबने के डर से किनारे पर बैठे रहते हैं.
(19) बाहर क्या दिखलाये, अंतर जपिए राम
कहाँ काज संसार से, तुझ धानी से काम
मतलब – कबीर जी का कहना है की हमें केवल जग में दिखावा करने के लिए ईश्वर को याद नहीं करना चाहिए बल्कि अपने अन्दर से यानी दिल से उनका जाप करना चाहिए. हमें इस संसार के लोगों से काम नहीं रखना बल्कि इस संसार का जो मालिक है उनसे सम्बन्ध रखने हैं.
(20) माला फेरत जग भया, फिरा ना मन का फेर
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर
अर्थ – लोग हाथ में मणियों की माला लेकर फेरते रहते हैं लेकिन उनके मन में चल रहे विचार भाव नहीं बदलते. मनकों की इस माला को फेरना छोड़कर, अपने मन के मोतियों की माला फेरनी चाहिए.
(21) दोष पराये देखि करी, चला हसंत हसंत
अपने याद ना आवै, जिनका आदि ना अंत
अर्थ – इंसान की फितरत है की वो दूसरों की गलतियों और उनके अवगुणों पर हँसता है जबकि वह अपने अन्दर छुपी बुराइयों को नहीं देख पाता जिनकी ना शुरुआत है और ना ही उनका अंत.
(22) निंदक नियरे राखिये, आँगन कूटी छवाय
बिन पानी, साबुन बिना निर्मल करे सुभाय
अर्थ – जो लोग हमारी निंदा करते हैं उन्हें ज्यादातर अपने आस पास ही रखना चाहिए. क्योंकि ये तो वो लोग होते हैं जो हमारी कमियां बताकर बिना साबुन और पानी के हमारे स्वभाव को बिलकुल साफ़ कर देते हैं.
(23) उज्जवल पहने कापड़ा, पान सुपारी खाए
एक हरी के नाम बिन, बंदा यमपुर जाए
अर्थ – कबीर जी के अनुसार जो लोग सिर्फ दिखावे की ज़िन्दगी जीते हैं मतलब सिर्फ चमकदार कपडे पहनते हैं और मुहं में पानी सुपारी रखकर चलते हैं. जो लोग कभी भगवान् को याद नहीं करते, वो भगवान् के पास नहीं बल्कि यमलोक जायेंगे.
(24) गुरु धोबी सिख कपडा, साबू सिर्जन हार
सुरती सिलापुर धोइए, तो निकसे ज्योति अपार
अर्थ – इस कबीरदास जी के दोहे का मतलब है की हमारे गुरु धोबी के समान होते हैं और हम शिष्य कपड़ों के समान और परमात्मा किसी साबुन के समान. गुरु परमात्मा रुपी साबुन की मदद से हम शिष्यों (कपड़ों) को चमकाते हैं.
(25) कबीरा ज्ञान विचार बिन, हरि ढूँढने को जाय
खुद के तन में त्रिलोकी बसे, अब तक परखा नाय
अर्थ – अज्ञानता की वजह से हम परमात्मा को इधर उधर ढूढने में लगे रहते हैं जबकि हकीकत ये है की परमात्मा हमारे अन्दर ही बसे हुए हैं. कमी बस इतनी है की अभी तक हमने उन्हें अपने अन्दर ढूँढने का प्रयास ही नहीं किया है.
(26) हीरा परखै जोहरी, शब्दही परखै साध
कबीर परखै साध को, ताका मता अगाध
अर्थ – कबीर कहते हैं हीरे की सही परख जौहरी को होती है और सज्जन पुरुषों को शब्दों की पहचान होती है. अगर कबीर उस सज्जन पुरुष को पहचानते की कोशिश करता है तो ये मत गंभीर है.
(27) एक ही बार परखिये, ना वा बारम्बार
बालू तो हो किरकिरी जो छानू सौ बार
अर्थ – इस दोहे के अनुसार हमें किसी भी व्यक्ति को बार बार परखने की जरुरत नहीं होती, उसका पता एक बार परखने से ही चल जाता है. ठीक उसी तरह जैसे आप बालू रेत को कितनी बार भी छान लीजिये वो किरकिरा ही रहेगा.
(28) मन मैला तन उजला, बगुला कपटी अंग
तासों तो कौवा भला, तन मन एक ही रंग
मतलब – बगुले का रंग तो चमकीला और उजला होता है पर उसका मन बिलकुल काला होता है. उससे तो कौआ ही अच्छा है जिसका तन मन एक जैसा है. वह रंग के दिखावे से किसी को धोखा नहीं देता है.
(29) हाड जले लकड़ी जले, जले जलावन हार
कौतिकहारा भी जले कांसौं करूँ पुकार
अर्थ – दाह संस्कार में हड्डियाँ भी जलती हैं, अग्नि देने वाली लकड़ियाँ भी जलती हैं और एक ना एक दिन आग जलाने वाला भी जल जाता है. समय बीतने के साथ साथ जिस जिस ने ये चीज़ देखि वो लोग भी जल जाते हैं. तो मै किसे पुकारूं प्रभु.
(30) प्रेम ना बाड़ी उपजे, प्रेम ना हाट बिकाई
राजा प्रजा जेहि रुचे शीश देहि ले जाई
कबीर के दोहे का मतलब – प्रेम ना तो किसी बाग़ में उपजता है तो ना ही बाज़ार में बिकता है. चाहे राजा हो या प्रजा अगर प्यार पाना है तो त्याग और बलिदान देना ही पड़ेगा.
(31) साधु भूखा भाव का, धन का भूखा नाहीं
धन का भूखा जो फिरै, सो तो साधु नाहीं
अर्थ – सच्चा साधु प्यार और अच्छे व्यवहार का भूखा होता है, धन दौलत का नहीं. जो धन दौलत का भूखा होता है वो साधु होता ही नहीं है.
(32) काची काया मन अथिर, थिर थिर काम करत
ज्यूँ ज्यूँ नर निधड़क फिरै, त्यूं त्यूं काल हसंत
अर्थ – हमारा शरीर नश्वर है और हमारा मन चंचल होता है. लेकिन हम लोग इन्हें स्थायी मान कर चलते हैं. इंसान जितना इस दुनिया को अपना समझकर निर्भीक होकर घूमता है, काल उतना ही उस पर हँसता है.
(33) मन मरया ममता मुई, जहं गयी सब छूटी
जोगी था सो रमी गया, आसणि रहि बिभूति
अर्थ – मन मर चुका है, ममता भी मर गयी. घमंड भी चूर हो गया और योगी भी चला गया. अब इस संसार में केवल उसकी भस्म और यश रह गया.
(34) कबीर संगती साध की, कड़े ना निर्फल होई
चन्दन होसी बावना, नीब ना कहसी कोई
सार – कबीर के अनुसार सज्जन पुरुषों का साथ कभी भी निष्फल नहीं होता. जिस प्रकार चन्दन का पेड़ यदि छोटा भी रह जाए तो उसे कोई नीम नहीं कहता, वह सुवासित ही रहता है और हमेशा सुगंध ही देता है.
(35) मूरख संग ना कीजिये, लोहा जल ना तिराई
कदली सीप भावनग मुख, एक बूँद तिहूँ भाई
अर्थ – कबीर के इस दोहे का मतलब है की हमें मुर्ख लोगों का साथ कभी नहीं रखना चाहिए. मुर्ख व्यक्ति लोहे के समान होता है जो पानी में तैर नहीं सकता. संगती का असर देख लीजिये की आसमान से गिरी एक बूँद केले के पत्ते पर पड़कर कपूर, सीप के मुहं में गिरकर मोती और सांप के मुहं में गिरकर जहर बन जाती है.
(36) करता केरे गुण बहुत, औगुन कोई नाहीं
जो दिल खोजा आपना, सब औगुन मुझ माहीं
अर्थ – ईश्वर में बुराइयाँ और अवगुण नहीं हैं. जब हम खुद को अन्दर से पहचानने और जानने की कोशिश करते हैं तब पता चलता है की सारे अवगुण हममें खुद में ही हैं.
(37) मनहिं मनोरथ छांडी दे, तेरा किया ना होई
पानी मै घीव नीकसै, तो रुखा खाई ना कोई
अर्थ – मन की इच्छाओं को गंभीरता से लेना छोड़ दो, जो मन चाहता है वो नहीं होता है. अगर पानी से ही घी निकलने लगे तो कोई भी रूखा सूखा नहीं खायेगा.
(38) कबीर नाव जर्जरी, कूड़े खेवनहार
हलके हलके तिरी गए, बूड़े तिनी सर भार
अर्थ – कबीर कहते हैं की ये जीवन रुपी नौका टूटी फूटी है और इसे चलाने वाले लोग बेकार यानी मुर्ख हैं. ये लोग संसार रुपी लोभ और वासनाओं में फंसकर भारी हो चुके हैं. जो लोग इन चीज़ों से मुक्त हैं वो हलके हैं और आसानी से भवसागर से पार हो जाते हैं.
(39) तेरा संगी कोई नहीं, सब स्वार्थ बंधी लोई
मन प्रतीति ना उपजे, जीव बेसास ना होई
अर्थ – इस दुनिया में कोई किसी का साथी नहीं है, सब अपने स्वार्थ के लिए आपके साथ व्यवहार करते हैं. जब तक हमें इस बात का भरोसा नहीं हो जाता तब तक आत्मा के प्रति भी विश्वास नहीं होता.
वास्तविकता का ज्ञान ना होने पर व्यक्ति इस झूठे संसार में रमा रहता है. जब मन में इसे समझने की उत्सुकता होती है तब ही अंतरात्मा की और उन्मुख होता है.
(40) नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल ना जाये
मीन सदा जल में रही, धोये बांस ना जाए
अर्थ – कबीर कहते हैं की नहाने धोने से कभी मन का मैल साफ़ नहीं होता. मछली हमेशा हमेशा के लिए पानी में ही रहती है लेकिन फिर भी उससे दुर्गन्ध ही आती है. संत कबीर के दोहों की बस यही खासियत है की उनके हर दोहे से हमें जीवन के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
यही कारण है की आज भी कबीर जी के दोहे बड़े चाव से पढ़े जाते हैं और उनके अर्थ पर काफी ज्यादा विचार किया जाता है. क्योंकि उनका एक भी दोहा ऐसा नहीं है जो की निरर्थक हो, मतलब जिससे किसी को कोई प्रेरणा, ज्ञान या भाव ना मिले.
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